विमर्श के ठिकाने

करुणानिधि द्विवेदी थड़ी की कड़क अदरक वाली भी हो रही है। हल्का फुल्का मजाक और चुटकुले भी तैर रहे हैं और प्रेम प्रसंगों की चाय का स्वाद ही अलहदा है। कानाबाती भी। मेरा शहर कोचिंग के लिए विख्यात है और लाखों विद्यार्थी वहां पढ़ने वह स्वाद नजाकत और तमाम आते हैं। ये चाय की श्चड़ियां एक तरह से तामझाम के साथ दूध, शक्कर, उनके आश्रय स्थल है, थकान के बाद थोड़ा आराम करने के ठिकाने हैं। बल्कि नीरसता चायपत्ती डाल कर चाय बनाने के सधन कार्यक्रम की ऊब से कुछ पल चुरा वाले ब्रिटिश अंदाज में नहीं आ कर वे नई ऊर्जा प्राप्त करते हैं। बाबू चाय वाला, मंगल चाय वालाजेसे कई नाम हैंसकता। चाय बनाने की यह ठेठ जो विद्यार्थियों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। ये खांटी शैली ही चाय को कोई मशहूर ब्रांड के नाम नहीं हैं, लेकिन इनकी चाय की तासीर और जायका जुबान सर्वहारा तक जोड़ पाई है और पर चढ़ चुका है। इसमें से एक चाय वाले ने उसका सफर ऊंचे होटलों, तो अपने व्यापार को विस्तार देते हुए शहर के दो तीन क्षेत्रों में अलग अलग शाखाएं भी महलों से निकल कर आमजन शुरू कर दी है। बड़ी की कड़क अदरक वाली चाय का तक पहुंचा है। किसी जमाने में बड़े और नामचीन शहरों निधन के मौके पर झआरआइपीढ़ लिख चाय की इन दुकानों पर बैठने के लिए स्वाद ही अलहदा है। वह स्वाद नजाकत में कॉफी हाउस होते थे। इलाहाबाद, कर कर्तव्यों की इतिश्री की जा रही है। जब समय की कोई पाबंदी नहीं है। कोई और तमाम तामझाम के साथ दूध, शक्कर, लखनऊ, मुंबई और दिल्ली की शामें इससे बातचीत ही नहीं होगी, तर्क-वितर्क नहीं शिगूफेबाजी नहीं है, सर्विस टैक्स या वकी थड़ियों को विमर्श का नया केंद्र चायपत्ती डाल कर चाय बनाने वाले ब्रिटिश ही आबाद होती थीं। कलाकारों, पत्रकारों, होंगे तो दूसरे के विचारों को सुनने-समझने जीएसटी का व्यर्थ संकट नहीं है। उधार, चाया आधुनिक चौपाल कहा जाए तो अंदाज में नहीं आ सकता। चाय बनाने की साहित्यकारों के ये प्रिय ठिकाने थे, जहां खुल और मनन करने की गुंजाइश ही कहां नकद, खाते-सब चलते हैं। अपने बेटे से मैंने अतिश्योक्ति नहीं होगी। छोटी-बड़ी चाय की यह ठेठ खांटी शैली ही चाय को सर्वहारा कर संवाद होता था, नई योजनाएं जन्म लेती बचेगी? ऐसे में हम एक अंधानुकरणवादी एक दिन पूछा कि तुम बड़ियों पर चाय पीने ये श्याड़ियां दरअसल मिलने-मिलाने, दो पल तक जोड़ पाई है और उसका सफर ऊंचे थी और तीक्ष्ण बहसें भी आकार लेती थीं। पिछलग्गू समाज में बदलते जा रहे हैं जो क्यों जाते हो, जबकि घर मेंझानी अच्छी चाय बतियाने का सस्ता ठिकाना है। इसे हम अपनी होटलों, महलों से निकलकर आमजन तक आज वे कॉफी हाउस लुप्तप्राय हैं। उनकी अपने मत के आग्रह की पूंछ पकड़कर पूरा मिलती है। उसने जवाब दिया किवहां चाय के प्रेमिका से गुफागू करने या अभिसार के पहुंचा है। चाय के ये ठिकाने दिन-रात फल- जगहबहुराष्ट्रीय कंपनियों ने काफी रेस्तरां की जीवन पार कर लेता है।न वह अपने कुएं से साथ जो चर्चा का आनंद है, अखबारों का निवांत निजी क्षणों के रूप में तो उपयोग नहीं फूल रहे हैं। यहां पर तीखी राजनीतिक बहसें शृंखलाएं डाल ली है, जहां निजता है, रम्य बाहर झांकना चाहता है, न सोचना- वाचन है, अलग-अलग लोगों की बातचीत कर सकते, लेकिन संक्षिप्त मुलाकात करने, होती हैं, गंभीर साहित्यिक चचाएं होती हैं, वातावरण है, लेकिन वेसा जनतंत्र और समझना। सुनकर समृद्ध होने का सुख है, वह घर में कुछ बातों के आदान-प्रदान के बहाने मिलने दफारों का झएक दूसरे की शिकायत करेंड खुलापन नहीं है। हम एक बंद समाज में बदलते जा रहे कां है! घर में वो औपचारिक वातावरण के प्राचीन पनघटों की तरह तो उपयोग कर ही कार्यक्रम आयोजित होता है और संबंध असल में निजीकरण ने मनुष्य को हैं, कई योथी आधुनिकताओं के वदावेके रहता है। मैं निरुत्तर था। चाव की गुमटियों में सकते हैं। अधिकार ऐसे शहरों में जहां सुधार कार्यक्रम के तहत नई बिसात भी एकाकी छोड़ दिया है, जहां उसे अवकाशतो बावजूदा चाय की इन छोटी दुकानों ने गांव घड़को, नव आकार लेते भारत को पता नहीं कामगार आबादी ज्यादा है या जहां प्रतियोगी बिछाई जाती है। चाय की इन थाड़ियों पर है, लेकिन संवाद के रास्ते बंद हो गए हैं। वह की चौपाल के ध्वंसख्यकीजगह स्थान बना हम शहरी चकाचौंध के चलते महसूस कर परीक्षाओं की तैयारी का वातावरण है, वहां ये विद्यार्थी और सरकारी या गैर-सरकारी अलग-थलग पड़ गया है। इन ठिकानों के लिया है। शहर की हलचल, घटनाक्रमों की भी पा रहे हैं या नहीं, लेकिन विमर्श के ये नए चाय की गुमटियां बहुतायत में पाई जाती हैं। कर्मचारी से लेकर मजदूर और पार्टी बंद होने का अभिशाप हम भुगत रहे हैं। ताजा खबर या उपलब्ध है। प्रश्नोत्तरी या मुकाम कम महत्वपूर्ण नहीं। किसी ' इनके माध्यम से लाखों लोगों को रोजगार भी कार्यकर्ता तक थकान मिटाने, ऊर्जा हासिल हमारी चेतना कुंद हो गई है, संवेदनाओं को जरूरी टिप्पणियों को लोग साझा भी कर रहे समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए तो बेशक मिल रहा है। करने और भड़ास निकालने भी आते हैं। काठमार गया है। बस फेसबुक पर किसी के हैं और अच्छे वा खराब शिक्षक की समीक्षा शोधपूर्ण हैं। रकारी स और